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Saturday, May 5, 2012

हम अनंत के यात्री हैं


जितने लोगों को लाभ हो सकता था, उन्होंने लाभ ले लिया; जो अभागे हैं, उनके लिए बैठे रहने से कुछ लाभ नहीं। अब कहीं और, किसी और कोने से! कहीं और भी लोग प्रतीक्षा करते हैं।

प्रश्न: भगवान बुद्ध ने आनंद से कहा कि स्थान बदलने से समस्या हल होने वाली नहीं है। फिर आप क्यों बार-बार स्थान बदल रहे हैं?
पहली तो बात, भगवान बुद्ध एक स्थान पर दो-तीन सप्ताह से ज्यादा नहीं रहते थे। मैं एक-एक जगह चार-चार, पांच-पांच साल टिक जाता हूं, सो यह तुम दोष मुझ पर न लगा सकोगे कि मैं बार-बार स्थान क्यों बदल रहा हूं। भगवान बुद्ध तो जिंदगीभर बदलते रहे। लेकिन उन्होंने भी समस्या के कारण नहीं बदला और मैं भी समस्या के कारण नहीं बदल रहा हूं। जब आनंद ने कहा उनसे कि हम दूसरे गांव चले चलें, क्योंकि इस गांव के लोग गालियां देते हैं, तो उन्होंने नहीं बदला। इस कारण नहीं बदला। उन्होंने कहा, इस कारण बदलने से क्या सार! इसका मतलब यह मत समझना कि वह स्थान नहीं बदलते थे। स्थान तो बदलते ही थे, बहुत बदलते थे, लेकिन इस कारण उन्होंने कहा स्थान बदलना गलत है।

उस स्थान से भी बदला उन्होंने, आखिर गए उस जगह से, लेकिन तब तक न गये जब तक यह समस्या बहुत कांटे की तरह चुभ रही थी और भिक्षु बदलना चाहते थे-तब तक नहीं गये। जब भिक्षुओं ने उनकी बात सुन ली और समझ ली और भिक्षु राजी हो गये और धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करने लगे, जब भिक्षुओं के मन में यह बात ही नहीं रही कि कहीं और चले, तब चले गए। मगर वे समस्या के कारण नहीं गए।

मैं भी समस्या के कारण नहीं बदलता। समस्या तो सब जगह बराबर है। सच तो बात यह है कि जहां दो-चार-पांच साल रह जाओ, वहां समस्याएं कम हो जाती हैं। लोग राजी हो जाते हैं--क्या करोगे!

मैं वर्षो जबलपुर था, लोग धीरे-धीरे राजी हो गए थे, वे समझते थे कि होगा, दिमाग खराब होगा इनका। जिनको सुनना था, सुनते थे; जिनको नहीं सुनना था, नहीं सुनते थे; बात तय हो गयी थी कि ठीक है, अब क्या करोगे इस आदमी का। शोरगुल मचा लिया, अखबारों में खिलाफ लिख लिया जुलूस निकाल लिए, क्या करोगे फिर, आखिर कब तक चलाते रहोगे! और भी काम हैं दुनिया में, धर्म कोई एक ही काम तो नहीं, फुर्सत किसको है! जिनको प्रार्थना करने की फुर्सत नहीं, उन्हें मेरा विरोध करने की फुर्सत भी कितनी देर तक रहेगी, यह तो सोचो! आखिर वे राजी हो गये कि ठीक है, अब छोड़ो, भूलों! जिस दिन वे राजी हो गए, उसी दिन मैंने जबलपुर छोड़ दिया। फिर कोई सार न रहा वहां रहने का।

फिर मैंने बंबई में अड्डा जमा लिया। फिर धीरे-धीरे बंबई के लोग भी राजी होने लगे कि ठीक है, तब मैं पूना में आ गया। अब पूना के लोग भी राजी होने के करीब आ रहे हैं-अब मैं क्या करूं! जाने का वक्त करीब आ गया। अब पूना में कोई नाराज नहीं है। मुझे पत्र आते हैं मित्रों के, पूना के संन्यासियों के कि अब आप छोड़ते हैं, जब कि सब ठीक-ठाक हुआ जा रहा है! अब लोग नाराज भी नहीं हैं, उतना विरोध भी नहीं कर रहे हैं।

लोगों की सीमा है। अगर तुम धैर्य रखे रहो, तो वे हार जाते हैं, क्या करेंगे! कब तक सिर फोड़ेंगे! मगर जैसे ही यह बात हो जाती है, फिर बदलने का वक्त आ जाता है। अब कहीं और जाएंगे, कहीं और जहां लोग सिर फोड़ेंगे, वहां जाएंगे।

समस्या के कारण नहीं बदली जाती हैं जगहें। समस्ययाएं हल हो जाती हैं, तो फिर बदल लेते हैं-अब यहां करेंगे भी क्या, मरीज न रहे! जितने लोगों को लाभ हो सकता था, उन्होंने लाभ ले लिया; जो अभागे हैं, उनके लिए बैठे रहने से कुछ लाभ नहीं। अब कहीं और, किसी और कोने से! कहीं और भी लोग प्रतीक्षा करते हैं। यही उचित है।

काफी समय रह लिया यहां। जो ले सकते थे लाभ, उन्होंने ले लिया, उनके कंठ भर गए। जिनके लिए आया था, उनका काम पूरा हो गया। ऐसे तो बहुत भीड़ है पूना में, उससे मेरा कोई लेना देना नहीं, उनके लिए मैं आया भी नहीं था; उनके लिए मैं आया भी नहीं, उनके लिए मैं यहां रहा भी नहीं। यहां दुनिया में कोने-कोने से लोग आ रहे हैं, लेकिन यहां पड़ोस में लोग हैं जो यहां नहीं आए।

जिनके लिए मैं आया था, उनका काम पूरा हुआ। अब कहीं और!

समस्या के कारण कोई बदलता नहीं--कोई बुद्ध नहीं बदलता समस्या के कारण।
-ओशो

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