Google Search

Saturday, May 5, 2012

आदमी होने की बीमारी


बीमारियों का इलाज चिकित्सक के पास है, लेकिन वह जो आदमी होने की बीमारी है, उस बीमारी का इलाज ध्यान के पास है।

मेडिसिन आदमी को ऊपर से शरीर की व्यवस्था और बीमारी से मुक्त करने की चेष्टा है। लेकिन ध्यान रहे, आदमी सब बीमारियों से मुक्त होकर भी आदमी होने की बीमारी से मुक्त नहीं होता। वह जो आदमी होने की बीमारी है, वह असंभव होने की चाह है। वह जो आदमी होने की बीमारी है, वह किसी भी चीज से तृप्त न होना है। वह जो आदमी होने की बीमारी है, वह सदा जो मिल जाए उसे व्यर्थ कर देना है और जो नहीं मिला, उसकी सार्थकता में लग जाना है।

वह आदमी होने की बीमारी का इलाज ध्यान है। बीमारियों का इलाज चिकित्सक के पास है, लेकिन वह जो आदमी होने की बीमारी है, उस बीमारी का इलाज ध्यान के पास है। और उस दिन चिकित्सा शास्त्र पूरा हो सकेगा, जिस दिन हम आदमी के भीतर के छोर को भी समझ लें और उसके साथ भी शुरू कर दें, क्योंकि मेरी अपनी समझ ऐसी है कि भीतरी छोर पर वह जो बीमार आदमी बैठा हुआ है, वह हजारों की तरह बीमारियां बाहर के छोर पर पैदा करता है।

चिकित्सा शास्त्र अब तक कह नहीं पाया, व्हाट इज़ हेल्थ?-स्वास्थ्य क्या है? वह उतना ही कह सकता है, व्हाट इज़ डिसीज़; बीमारी क्या है? स्वभावतः उसका कारण है। उसका कारण यही है कि चिकित्सा शास्त्र बाहर से पकड़ता है, बाहर से बीमारी ही पकड़ में आती है। वह जो भीतर है मनुष्य का आंतरिक अस्तित्व-वह जो इनरमोस्ट बींइग, वह जो भीतरी आत्मा, स्वास्थ्य सदा वहीं से ही पकड़ा जा सकता है, इसलिए हिंदी का स्वास्थ्य बहुत अद्भुत है। अंग्रेजी का हेल्थ शब्द स्वास्थ्य का पर्यायवाची नहीं है, हेल्थ तो हीलिंग से बना है, उसमें बीमारी जुड़ी है, हेल्थ का मतलब तो है हील्ड-जो बीमारी से छूट गया, स्वास्थ्य का मतलब नहीं है जो बीमारी से छूट गया। स्वास्थ्य का मतलब है जो स्वयं में स्थित हो गया-‘दैट वन हू हैज रीच्ड हिमसेल्फ’-वह जो अपने भीतर गहरे से गहरे में पहुंच गया।

स्वास्थ्य का मतलब है, स्वयं में जो खड़ा हो गया, इसलिए स्वास्थ्य का मतलब हेल्थ नहीं है। असल में दुनिया की किसी भाषा का स्वास्थ्य के मुकाबले कोई शब्द नहीं है। और दुनिया की सभी भाषाओं में जो शब्द हैं वह डिसीज या नो-डिसीज़ है। स्वास्थ्य की धारणा ही हमारे मन में बीमारी न होने की है, लेकिन बीमारी न होना जरूरी तो है पर स्वस्थ होने के लिए पर्याप्त नहीं है, इट इज़ नेसेसरी बट नॉट सफीसिअंट-कुछ और भी चाहिए, दूसरे छोर पर वह जो भीतर हमारा अस्तित्व है वहां कुछ हो सकता है। बीमारी बाहर से शुरू हो तो भी भीतर तक उसकी प्रतिध्वनि पहुंच जाती है। अगर मैं शांत झील में एक पत्थर फेंक दूं तो जहां पत्थर गिरता है, चोट वहीं पड़ती है लेकिन तरंगें दूर झील के तट तक पहुंचती हैं, जहां पत्थर कभी नहीं पहुंचता है। ठीक जो हमारे शरीर पर घटना घटती है, तो तरंगें आत्मा तक पहुंच जाती हैं। और अगर चिकित्सा शास्त्र सिर्फ शरीर का इलाज कर रहा है, तो उन तरंगों का क्या होगा जो दूर तट पर पहुंच गई? अगर हमने पत्थर फेंका है झील में और हम उसी जगह केंन्द्रित हैं जहां पत्थर गिरा और पानी में गड्ढा बना, और उन तरंगों का क्या होगा जो कि पत्थर से मुक्त हो गई, जिनका अपना अस्तित्व शुरू हो गया।

जब एक आदमी बीमार पड़ जाता है तो शरीर की चिकित्सा के बाद में बीमारी से पैदा हुई तरंगें उसकी आत्मा तक प्रवेश कर जाती हैं, इसलिए अक्सर बीमारी लौटने की जिद्द करती है। बीमारी लौटने की जिद्द, उन तरंगों से पैदा होती है जो उसकी आत्मा के अस्तित्व तक जुड़ जाती हैं और जिनका चिकित्सा शास्त्र के पास अब तक कोई उपाय नहीं है, इसलिए चिकित्सा शास्त्र बिना ध्यान के सदा ही अधूरा ही रहेगा। हम बीमारी ठीक कर देंगे, बीमार को ठीक न कर पायेंगे। वैसे डाक्टर के हित में है यह बीमार ठीक न हो। बीमारी भर ठीक होती रहे, बीमार लौटते रहे!

दूसरा जो छोर है वहां से भी बीमारी पैदा हो सकती है। सच तो यह है कि वहां बीमारी है ही, जैसा मनुष्य है। जैसा मनुष्य है वहां एक टेंशन है ही भीतर। कोई पशु इस तरह डिजीज्ड नहीं है, इस तरह से रेस्टलैस नहीं है, इस तरह बेचैन और तनाव में नहीं है, उसका कारण है। किसी पशु के मस्तिष्क में कुछ और होने का ख्याल नहीं है। कुत्ता कुत्ता है। उसे होना नहीं है। आदमी को आदमी होना है, है नहीं। इसलिए हम किसी कुत्ते को यह नहीं कह सकते कि तुम थोड़े कम कुत्ते हो। सब कुत्ते बराबर कुत्ते होते हैं, लेकिन किसी आदमी से स्पष्ट रूप से कह सकते हैं कि वह थोड़ा कम आदमी है। आदमी पूरा पैदा नहीं होता है।

आदमी का जन्म अधूरा है। सब जानवर पूरे पैदा होते हैं। आदमी अधूरा पैदा होता है। कुछ काम है जो उसे करना पड़ेगा तब वह पूरा हो सकता है। वह पूरा न होने की स्थिति है। वह उसकी डिसीज़ है। इसलिए वह चौबीस घंटे परेशान है।

नीत्से ने कहीं कहा है कि आदमी एक सेतु है। ‘ए स्पेस बिटवीन टू इम्पासिबिलिटीज’ दो असंभावनाओं के बीच में फैला हुआ पुल। निरंतर असंभव के लिए आतुर, पूरा होने के लिए आतुर। इस पूरे होने की आतुरता से सारे धर्म पैदा हुsए और यह जानना उपयोगी होगा कि एक दिन धर्मगुरु ही चिकित्सक था। पुरोहित ही चिकित्सक था। वही प्रीस्ट था, वही डॉक्टर था और आश्चर्य न होगा कि कल फिर स्थिति वही हो जाए। थोड़ा सा फर्क होगा। अब जो चिकित्सक होगा वही पुरोहित हो सकता है! अमेरिका में वह घटना घटनी शुरू हो गयी, क्योंकि पहली दफा यह बात अमेरिका में साफ हो गयी कि सवाल सिर्फ शरीर का नहीं हैं बल्कि यह भी साफ होना शुरू हो गया है कि अगर शरीर बिल्कुल स्वस्थ हुआ तो मुसीबतें और बढ़ जाएँगी, क्योंकि पहली दफे भीतर के स्तर पर जो रोग है, उसका बोध शुरू हो जाएगा।

हमारे बोध के भी तो कारण होते हैं। अगर मेरे पैर में कांटा गड़ा होता है तो मुझे पैर का पता चलता है। जब तक कांटा पैर में नहीं गड़ता पैर का पता नहीं चलता। और कांटा पैर में होता है। तो मेरी पूरी आत्मा ‘ऐरो’ हो जाती है, तीर बन जाती है पैर की तरफ। जैसे पैर को ही देखती है। कुछ और नहीं देखती। स्वाभाविक है। लेकिन पैर से कांटा निकल जाए, फिर यह आत्मा कुछ तो देखेगी। भूख तृप्त हो जाए, कपड़े ठीक मिल जाएं, मकान व्यवस्थित हो जाए, तो पत्नी चाहिए! मिल जाए-हालांकि इससे बड़ा दुख नहीं है दुनिया में। जिसको मनचाही पत्नी मिल जाये, उसके दुख का अंत नहीं है। क्योंकि मनचाही पत्नी न मिलने से कम से कम आशा में एक सुख रहता है, वह भी खो जाता है।

मेडिसन आदमी को ऊपर से शरीर की व्यवस्था और बीमारी से मुक्त करने की चेष्टा है। लेकिन ध्यान रहे, आदमी सब बीमारी से मुक्त होकर भी आदमी होने की बीमारी से मुक्त नहीं होता। वह जो आदमी होने की बीमारी है, वह असंभव की चाह है। वह जो आदमी होने की बीमारी है, वह किसी भी चीज से तृप्त न होना है। वह जो आदमी होने की बीमारी है, वह सदा जो मिल जाए उसे व्यर्थ कर देना है और जो नहीं मिला, उसकी सार्थकता में लग जाना है। वह आदमी होने की बीमारी का इलाज ध्यान है। बीमारियों का इलाज चिकित्सक के पास है, लेकिन वह जो आदमी होने की बीमारी है उस बीमारी का इलाज ध्यान के पास है। और उस दिन चिकित्सा शास्त्र पूरा हो सकेगा, जिस दिन हम आदमी के भीतर के छोर को भी समझ लें और उसके साथ भी शुरू कर दें, क्योंकि मेरी समझ कुछ ऐसी है कि भीतरी छोर पर वह जो बीमार आदमी बैठा हुआ है, वह हजारों तरह की बीमारियां बाहर के छोर पर भी पैदा करता है।

जैसे मैंने कहा, शरीर पर बीमारी पैदा हो तो उसकी वाईब्रेशंस, उसकी तरंगें अंतरात्मा तक पहुंच जाती हैं। अगर अंतरात्मा बीमार हो तो उसकी तरंगें शरीर के छोर तक आती हैं। इसलिए तो दुनिया में हजारों तरह की चिकित्साएं चलती हैं। हजारों तरह की पैथीज हैं दुनिया में! यह हो नहीं सकता। यह होना नहीं चाहिए, अगर पैथालाजी एक साइंस है तो हजारों तरह की नहीं हो सकती हैं। लेकिन हजारों तरह की हो सकती हैं, क्योंकि आदमी की बीमारियां हजारों तरह की हैं। कुछ बीमारियों को एलोपैथी फायदा पहुंचा नहीं सकती। जो बीमारियां भीतर से बाहर की तरफ आती हों, उनके लिए एलोपैथी एकदम बेमान हो जाती है। जो बीमारियां भीतर से बाहर की तरफ आती हैं, उनके लिए एलोपैथी बड़ी सार्थक हो जाती है। जो बीमारियां भीतर से बाहर की तरफ आती हों वे बीमारियां शारीरिक होती ही नहीं। शरीर पर केवल प्रकट होती हैं। उनके होने का तल सदा ही साइकिक या और गहरे में स्प्रीचुअल होता है। या तो मानसिक होता है या आध्यात्मिक होता है।

अब जिस आदमी को मानसिक बीमारी है, इसका अर्थ हुआ कि उसको शारीरिक चिकित्सा कोई फायदा नहीं पहुंचा सकेगी। शायद नुकसान पहुंचाए, क्योंकि चिकित्सा कुछ करेगी आदमी के साथ। और उसका कुछ करना-अगर फायदा नहीं पहुंचाता तो नुकसान पहुंचाएगा। सिर्फ वही चिकित्साएं नुकसान नहीं पहुंचाती जो फायदा नहीं भी पहुंचा सकती। जैसे होमियोपैथी कोई नुकसान नहीं पहुंचाती लेकिन होमियोपैथी से फायदा होता है। नुकसान नहीं पहुंचा सकती, इसका यह मतलब नहीं कि होमियोपैथी से फायदा नहीं होता। फायदा होना दूसरी घटना। ये दो चीजें है अलग-अलग। फायदा होता है। फायदा इसलिए होता है कि वह आदमी अगर बीमारी को मानसिक तल पर पैदा कर रहा है, तो उसे बीमारी के लिए फाल्स मेडिसन की जरूरत है। उसे झूठी मेडिसन की जरूरत है। उसे सिर्फ भरोसा भर आ जाए। वह राख से भी आ सकता है।
-ओशो

No comments:

" Motivational Video "

All Posts on this blog are the property of their respective authors. All information has been reproduced here for educational and informational purposes.