अभी और यहां जीना - प्रत्येक क्षण |
मोहिनी मदान, एक सुखी गृहस्थिन हैं। नोएडा में पति एवं बच्चों से भरापूरा परिवार है उनका। यूं तो वह कामकाजी महिला नहीं हैं, लेकिन पति के कार्यों में हाथ बटाती हैं। ओशो के संपर्क में आपका कैसे आना हुआ? इस प्रश्न के उत्तर में उन्होंने बताया कि भीतर एक तलाश चल रही थी। उस समय के प्रचलित सभी संप्रदायों में जा-जाकर देखा लेकिन कहीं भी दिल नहीं टिका। कहीं कुछ न कुछ कमी का अहसास होता; कुछ छूटा हुआ सा लगता था। और कहीं सुकून नहीं मिल पाता था। सन् 1992 की बात है। एक बार मैं अपने पति के साथ कुल्लू मनाली से होकर माता के दर्शन करने जा रही थी। रास्ते में गाड़ी के ड्राइवर ने ओशो-प्रवचन की कैसेट लगायी। सुना, तो हम दोनों को बहुत अच्छा लगा। फिर तो सात दिनों के सफर में हमने ओशो को खूब सुना। इसके बाद हम लोगों का ओशो को पढ़ना और सुनना शुरू हो गया और आज तक वह सिलसिला ज़ारी है। कभी-कभी तो सारी-सारी रात ओशो को सुना है मैंने। मन में जो भी दुविधा होती; जो भी प्रश्न उठते थे; उनके उत्तर ओशो से मिलने लगे। मेरा जीवन बदलने लगा। मैं ओशो की ओर खिंचती चली गई। मेरी समस्याओं का समाधान होने लगा था। ओशो की ध्यान विधियों के संबंध में उनका अनुभव पूछने पर उन्होंने कहा कि ओशोधाम में आयोजित ध्यान-शिविरों में मैं आती रहती थी। यहां कई ध्यान प्रयोगों को करने के बाद मुझे अपने लिए सक्रिय ध्यान और कुंडलिनी ध्यान उपयोगी लगे। उनका मैंने घर में काफी अभ्यास किया। हां, कुंडलिनी ध्यान के बारे में मैं एक बात जरूर शेयर करना चाहूंगी। मुझे 2008 से मेरे ब्रेस्ट में काफी प्रोब्लम्स रहने लगी थी। मैंने इस प्राब्लम का कई जगह से इलाज करवाया। पर कहीं से भी मुझे कोई फर्क महसूस नहीं हो रहा था। तब मैंने लगातार आठ महीनों तक कुंडलिनी ध्यान विधि को किया। इससे मेरे भीतर के ब्लाकेज दूर होने लगे। और मुझे काफी फर्क महसूस होने लगा। यह बात आज तक मेरे लिए स्मरणीय बनी हुई है। ओशो की ध्यान विधियां, शरीर, मन व चेतना में रूपांतरण के लिए कारगर उपाय हैं। जैसा कि ओशो ने कहा है ‘‘मेरा संदेश कोई सिद्धांत, कोई चिंतन नहीं है। मेरा संदेश तो रूपांतरण की एक कीमिया, एक विज्ञान है। वे ही लोग जो तैयार हों मरने को और ऐसे नये रूप में पुनरुज्जीवित होने को जिसकी वे अभी कल्पना भी नहीं कर सकते...केवल वही थोड़े से साहसी लोग मुझे सुनने को तैयार होंगे, क्योंकि सुनना जोखिम से भरा होगा।’’ ओशो के नव-संन्यास के संबंध में पूछे जाने पर मा प्रेम वंदना ने बताया: सन् 2002 में गुरु पूर्णिमा को मैंने स्वामी वैराग्य अमृत से नव-संन्यास दीक्षा ग्रहण की। नव-संन्यास लेने के बाद मेरे जीवन में बहुत रूपांतरण हुए। उन्होंने मुझे जीना सिखा दिया। मुझे नया नाम भी मिल गया--‘मा प्रेम वंदना’। संन्यास लेने से पहले मेरे अंदर किसी भी इंसान के प्रति उतना सम्मान व प्रेम नहीं था जितना अब अपने भीतर पाती हूं। ओशो-जगत में आने के बाद आपके जीवन में क्या-क्या रूपांतरण हुए?, प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने बतलाया कि संन्यास लेने के पश्चात् मेरे अभिभावाकों तथा मित्रों ने मेरे अंदर काफी रूपांतरण महसूस किया। और इस रूपांतरण को देखकर वे भी ध्यान में उत्सुक हुए हैं। उन्होंने भी ओशो को पढ़ना व सुनना शुरू कर दिया है। अब मैं स्वयं को पहले से कहीं अधिक विश्रामपूर्ण और आनंदपूर्ण अनुभव करती हूं। मेरा गुस्सा काफी कम हो गया है। अपने निकट के संबंधों में मेरा बर्ताव प्रेमपूर्ण होता जा रहा है। और मुझे मेरा मार्गदर्शक मिल गया है। आज के युग में ओशो किस तरह से संबद्ध हैं?, इस प्रश्न का उत्तर देते हुए मा वंदना ने बताया कि आज के युग में ओशो व उनकी देशनाओं की पूरी मानवजाति को बहुत जरूरत है। ओशो ने मानव-चेतना के विकास की हर संभावना पर मार्गदर्शन दिया है। ओशो ने ध्यान और हमारी मुक्ति के लिए क्रांतिकारी जीवन दृष्टि दी है--‘‘अभी और यहां जीना--क्षण, क्षण; न तो अतीत की स्मृतियों के बोझ में जीना, न भविष्य की कल्पनाओं में जीना।’’
-मा प्रेम वंदना
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