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Saturday, May 5, 2012

ओशो अमृत-पत्र


प्रभु को जानना है, तो स्वयं को जीतो
मनुष्य का मन दासता में है। हम अपने ही दास पैदा होते हैं। वासना की जंजीरों के साथ ही जगत में हमारा आना होता है। बहुत सूक्ष्म बंधन हमें बांधे हैं।


परतंत्रता जन्मजात है। वह प्रकृति प्रदत्त है। हमें उसे कमाना नहीं होता। मनुष्य पाता है कि वह परतंत्र है। पर, स्वतंत्रता अर्जित करनी होती है। उसे वही उपलब्ध होता है, जो उसके लिए श्रम और संघर्ष करता है। स्वतंत्रता के लिये मूल्य देना होता है। जीवन में जो भी श्रेष्ठ है, वह निर्मूल्य नहीं मिलता। प्रकृति से मिली परतंत्रता दुर्भाग्य नहीं है। दुर्भाग्य है, स्वतंत्रता अर्जित न कर पाना। दास पैदा होना बुरा नहीं, पर दास ही मर जाना अवश्य बुरा है। अंतस की स्वतंत्रता को पाये बिना जीवन में कुछ भी सार्थकता और कृतार्थता तक नहीं पहुंचता है। वासनाओं की कैद में जो बंद हैं, और जिन्होंने विवके का मुक्ताकाश नहीं जाना है, उन्होंने जीवन तो पाया, पर वे जीवन को जानने से वंचित रह गये हैं। पिंजड़ों में कैद पक्षियों और वासनाओं की कैद में पड़ी आत्माओं के जीवन में कोई भेद नहीं है। विवके जब वासना से मुक्त होता है, तभी वास्तविक जीवन के जगत में प्रवेश होता है।


प्रभु को जानना है, तो स्वयं को जीतो। स्वयं से ही जो पराजित हैं, प्रभु के राज्य की विजय उनके लिये नहीं है।
-ओशो

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